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नदी के द्वीप

सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन अज्ञेय

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :462
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9706
आईएसबीएन :9781613012505

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व्यक्ति अपने सामाजिक संस्कारों का पुंज भी है, प्रतिबिम्ब भी, पुतला भी; इसी तरह वह अपनी जैविक परम्पराओं का भी प्रतिबिम्ब और पुतला है-'जैविक' सामाजिक के विरोध में नहीं, उससे अधिक पुराने और व्यापक और लम्बे संस्कारों को ध्यान में रखते हुए।

अज्ञेय एक ऐसे विलक्षण और विदग्ध रचनाकार हैं, जिन्होंने भारतीय भाषा और साहित्य को भारतीय आधुनिकता और प्रयोगधर्मिता से सम्पन्न किया है; प्रस्तुत है उनका उपन्यास ----

नदी के द्वीप

 

नदी के द्वीप : क्यों और किसके लिए

अपनी किसी कृति के बारे में कुछ कहने का आकर्षण कितना ख़तरनाक है, इसको वे लोग पहचानते होंगे जिन्होंने कवि सम्मेलनों आदि में कवियों को अपनी कविता की व्याख्या करते सुना है। कृतिकार को जो कहना है, जब उस ने कृति में वह कहा ही है, और मानना चाहिए कि यथाशक्य सुन्दर रूप में ही कहा होगा, तब क्यों वह उसे कम सुन्दर ढंग से कहना चाहेगा? एक जवाब यह हो सकता है कि जो कृति में सुन्दर ढंग से कहा गया है, वह व्याख्या में सुबोध ढंग से कहा जायेगा। तो इस जवाब में सुन्दर और सुबोध का जो विरोध मान लिया जाता है, उसे कम से कम मैं तो स्वीकार नहीं करता। सुबोधता भी सौन्दर्य का ही एक अंग है या होना चाहिए। ऐसा जरूर हो सकता है कि वस्तु के अनुकूल रूप-विधान में-और इस अनुकूलता में ही सौन्दर्य है-सुबोधता इसलिए कम हो कि वह वस्तु भी वैसी हो। तब इस दशा में सुबोध बनाने में हम वस्तु से कुछ दूर ही चले जावेंगे। कोई भी वस्तु, कृति में अपने सुन्दरतम और इसलिए सुबोधतम होकर भी सहज सुबोध नहीं हुई है, तो यह तभी हो सकता है कि उस स्थिति में वह वस्तु अधिक सुबोध नहीं हो सकती, और अगर ऐसा है तो व्याख्या सुबोध तभी होगी जब वह कृति के सम्पूर्ण को खण्डित कर के उसके खण्ड को ही-या अलग-अलग खण्डों को ही देखे।

'नदी के द्वीप' में भूमिका नहीं है। इसलिए नहीं है कि मैंने सीख लिया, उपन्यास में उपन्यासकार को जो कहना है, वह उपन्यास से ही प्राप्य होना चाहिए; न सिर्फ़ होना चाहिए, उपन्यास से ही हो सकता है, नहीं तो फिर उपन्यासकार ने वह कहा ही नहीं है। मैं क्यों मान लूँ कि मेरा पाठक इतना बुद्धि-सम्पन्न नहीं होगा कि मेरी बात पहचान ले? बल्कि इतना ही नहीं, यह भी तो सम्भव है कि मैंने जो कहा है, उसे मैं स्वयं दूसरे रूप में उतना ठीक न पहचानूँ, न जानूँ? स्पष्ट है कि कहानीकार भी इस बात को मानता है कि 'कहानी पर विश्वास करो, कहानीकार पर मत करो'। नहीं तो कहानी क्यों लिखता, बिना कहानी के ही निरी व्याख्या क्यों न लिख डालता? ऐसे भी लेखक हैं जिन्होंने कृति से बड़ी भूमिकाएँ लिखी हैं-कभी-कभी भूमिकाएँ ही पहले और प्रधान मान कर लिखी हैं, और फिर कृति में केवल भूमिका में प्रतिपादित सिद्धान्तों को उदाहृत कर दिया है। लेकिन ऐसी दशा में भूमिका को ही कृति मानना चाहिए, और तथा-वर्णित कृति को उसकी एक अलंकृति, एक दृष्टान्त।

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